Tuesday, December 11, 2001

शुन्य



अनजान राहें , अनजान हमसफ़र
चलते जा रहे हैं एक शुन्य की ओर 
शुन्य का कोई क्षितिज नहीं है
धरती और अम्बर कही विलीन ही नहीं है

शुन्य की तलाश में भागते- दौड़ते
स्वयं को सहेजते समेटते
असंख्य लोग दिख जाते हैं

एक दुसरे से आगे निकालने की होड़ में
अस्तित्व सिध्धि की रेलमपेल में
राहगीरों को नोचते खसोटते
स्वार्थ्परिता की कशमकश में
अपने लिए
भीड़  को दुत्कारते तिरस्कृत करते ये लोग
चलते जा रहे हैं


अनजान राहें अनजान हमसफ़र
सुखद संभावनाओ से भरी है डगर
दूर कहीं प्रकाश पुंज जरुर है
शुन्य के अँधेरे को मुह चिडाता हुआ...