
जब कभी ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न उठता है
अगला प्रश्न उठता है " यह प्रश्न कैसे ? "
क्या मुझे विश्वास नहीं
पंछियों के मधुर कलरव पर ?
आकाश की अनंत सीमा पर ?
तरु-वृन्दों की निश्छलता पर ?
जुगनू की जगमगाहट पर?
क्या मुझे विश्वास नहीं ?
इस असंख्य जनसमूह की एकरूपता पर
इन मानवीय रिश्तों की मधुरता पर ?
स्वयामंगों के निर्दोष संचलन पर ?
विविध जीवो के विचित्र संकरण पर ?
क्या मुझे विश्वास नहीं?
इस तपोवन पर?
मनुष्य के अथक श्रम पर?
मानव मात्र के कर्म पर?
इस निर्विवाद जीवन पर...
फिर ईश्वर के होने पर ,
प्रश्न कैसे ?
इश्वर यही कहीं है,
क्रमिक घटनाओ से मुझे उबारता,
स्वयम ही अपने स्वर को निखारता,
अटल अचल समरूप है वह,
वह हर कही है,
प्रश्नों की सीमा से परे है वह,
वह यही कही है,
वह यही कही है...