Tuesday, September 24, 2002

मेरा ईश्वर




जब कभी ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न उठता है
अगला प्रश्न उठता है " यह प्रश्न कैसे ? "
क्या मुझे विश्वास नहीं
पंछियों के मधुर कलरव पर  ?
आकाश की अनंत सीमा पर ?
तरु-वृन्दों की निश्छलता पर ?
जुगनू की जगमगाहट पर?



क्या मुझे विश्वास नहीं ?
इस असंख्य जनसमूह की एकरूपता पर
इन मानवीय रिश्तों की मधुरता पर ?
स्वयामंगों के निर्दोष संचलन पर ?
विविध जीवो के विचित्र संकरण पर ?





क्या मुझे विश्वास नहीं?
इस तपोवन पर?
मनुष्य के अथक श्रम पर?
मानव मात्र के कर्म पर?
इस निर्विवाद जीवन पर...


फिर ईश्वर के होने पर ,
प्रश्न कैसे ?
इश्वर यही कहीं है,
क्रमिक घटनाओ से मुझे उबारता,
स्वयम ही अपने स्वर को निखारता,
अटल अचल समरूप है वह,
वह हर कही है,
प्रश्नों की सीमा से परे है वह,
वह यही कही है,
वह यही कही है...




व्यथित होकर क्या मिलेगा ?





जीवन है संचय असंख्य तुषार कणों का
प्रयत्न करोगे जितना
समेटने का इन्हें
उतना ये बिखर जायेंगे
ह्रदय मलिन कर जायेंगे
व्यथित होकर क्या मिलेगा ?

आकांक्षाओ के कथित क्षितिज पर,
चढ़ना चाहते हो उच्च शीर्ष पर ,
अपने अंक में भरकर सर्वस्व ,
कैसे तुम चढ़ पाओगे ?
त्याग लोभ को चढो धैर्य से ,
क्षितिज पर अवश्य पहूच पाओगे,
शीघ्रता से क्या मिलेगा ?

देखी हर घटना निज दृष्टि से ,
स्वयं कर लेते हो निर्णय इसका ,
'कौन ' सही था 'कौन ' गलत था
नयी दृष्टि से  जब देख पाओगे
संशय से दूर हट जाओगे
ह्रदय संतोषमय होगा
व्यर्थ अभिमान से क्या मिलेगा ?

व्यथित होकर क्या मिलेगा ?
व्यथित होकर क्या मिलेगा ?