Thursday, February 26, 2004

क्षण और प्रण

क्षण मेरे और प्रण मेरे ,

साथ नहीं हैं एक दूजे के ,

छूट जाते हैं हाथों से ,

फिसलती रेत की तरह .......



तन और मन का साथ है जैसे,

जुड़ता घटता एक दूजे से ,

बोध नहीं है मन को तन का ,

तन को मन का भान नहीं है,

क्षण मेरे और प्रण मेरे ........




आल्हादित जब कर जाते हैं ,

मन ऐसे जो जुड़े हैं मुझसे,

मेरे दुःख फिर खो जाते हैं,

भंवर में कही ।



मन उनके और मन मेरा जुड़े हैं कैसे ?

एक दूजे से ,

जलधि एक उदधि में जैसे .

क्षण मेरे और प्रण मेरे ...................




प्रण मेरे जब खो जाते हैं ,

सुख उन्हें खो देने का ,

दे जाता है एक नया प्रण मुझे ,

संकल्प कुछ नया करने का

गुंजित मेरा मधुबन है ,

सुन्दर स्वप्नों से भरा ,

अभिहित नवांकुर त्रुशों से

क्षण मेरे और प्रण मेरे ...........



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