क्षनान्श अपने जीवन का
क्या अर्पित नहीं कर सकते
हम अपने अप्राप्य को
गतांक किसके जीवन का
उद्वेलित नहीं कर देता
मन के सुप्त भाव को
प्रेम घट जाता है समीपता से
मोह बढ़ता है दूर कही बैठे उस
सुन्दर स्वप्न "अप्राप्य " के प्रति
निर्बल मन व्याकुल कर देता है हठाट ही
उसे पाने के लिए
निकटता का विकर्षण
अकारण ही जोड़ देता है मन
जीवन के गतांक से
व्यथित कर हमे
शतांश ले जाता है
लोभी मन किसी नवांक हेतु
पारितोषिक हैं कुछ ओस कण नयनो में
खड़े हैं हम
मिथ्या स्मित ओढ़े सनद में
अर्पित करके
क्षनान्श अपने जीवन का
अपने अप्राप्य को
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