Saturday, March 8, 2003

अप्राप्य

 क्षनान्श  अपने जीवन का
 क्या अर्पित नहीं कर सकते 
हम अपने अप्राप्य को 

गतांक किसके जीवन का 
उद्वेलित नहीं कर देता 
मन के सुप्त  भाव को 
 
प्रेम  घट जाता  है समीपता से 
मोह बढ़ता है दूर कही बैठे उस 
सुन्दर स्वप्न "अप्राप्य " के प्रति 
 
निर्बल मन व्याकुल कर देता है हठाट ही 
उसे पाने के लिए 
निकटता का विकर्षण 
अकारण ही जोड़ देता है मन 
जीवन के गतांक से 

व्यथित कर हमे 
शतांश ले जाता है 
लोभी मन किसी नवांक हेतु 


पारितोषिक हैं कुछ ओस कण नयनो में 
खड़े हैं हम 
मिथ्या स्मित ओढ़े सनद में 
अर्पित करके 
क्षनान्श  अपने जीवन का
अपने अप्राप्य को



 

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