Friday, October 20, 2023

random musings

...

"jis bhi raah pe chal niklo kuchh na kuchh haasil jarur hota hai.
bas ki dushwar hai safar ka aasan ho.

har ek baat me kuchh sahi aur kuchh galat hota hai...
yu har baat pe  ik dusre se khafa na ho...

jab sahi lage jo sahi lage kar guzro yaaro, 
teri gali se jo guzaru toe yu khalish na ho...

mere tere ek hone se gar behatar hai alag hona,
chal tu khush rahna jaha hai.. koi kami na ho...

mere dil pe jo guzari hai teri narazi se...
shayad teri nazar me wo chubhi na ho..

jo mile hume safar me apana banate gaye, 
gairo me mera naam kabhi shamil na ho...

ek din aayega ki tujhe hum aayenge yaad fir..
jaha aaj hain magar kal hum beshak vaha na ho...."

Sunday, May 15, 2005

hastakshar

अंकित हैं हस्ताक्षर कितने

पन्नो पर जीवन के ?

हस्ताक्षर उनके जो करीब हैं ,

और उनके जो अपरिचित हैं अब तक ,

अपरिचित मुझसे /

अपरिचित स्वयं से .....



हस्ताक्षर मेरे उनके जीवन पर ,

होंगे क्या उतने ही गहरे /

भेद भरे ?



आरम्भ है एक स्मित से ,

स्वागत , नयनो के रास्ते ,

आकांक्षाओं के बढ़ाते ही /

परिचय होता है एक अपरिचित मन से ,

छिपा बैठा है उनके भीतर ,

वेदना से भरा ,

स्वयं से अजान , बोध के परे .....



रहस्यमय हस्ताक्षर उनके ,

सहेज के रखे हैं मैंने ,

परिचय की आशा में ….

Thursday, February 26, 2004

क्षण और प्रण

क्षण मेरे और प्रण मेरे ,

साथ नहीं हैं एक दूजे के ,

छूट जाते हैं हाथों से ,

फिसलती रेत की तरह .......



तन और मन का साथ है जैसे,

जुड़ता घटता एक दूजे से ,

बोध नहीं है मन को तन का ,

तन को मन का भान नहीं है,

क्षण मेरे और प्रण मेरे ........




आल्हादित जब कर जाते हैं ,

मन ऐसे जो जुड़े हैं मुझसे,

मेरे दुःख फिर खो जाते हैं,

भंवर में कही ।



मन उनके और मन मेरा जुड़े हैं कैसे ?

एक दूजे से ,

जलधि एक उदधि में जैसे .

क्षण मेरे और प्रण मेरे ...................




प्रण मेरे जब खो जाते हैं ,

सुख उन्हें खो देने का ,

दे जाता है एक नया प्रण मुझे ,

संकल्प कुछ नया करने का

गुंजित मेरा मधुबन है ,

सुन्दर स्वप्नों से भरा ,

अभिहित नवांकुर त्रुशों से

क्षण मेरे और प्रण मेरे ...........



Sunday, March 30, 2003

सत्य

विकल्प ही नहीं ,
छिटकने का सत्य से दूर ,
जब कोई ,
मान लो उसे जो शाश्वत है सत्य है ,
अभिन्न एक हल है ,
तुम्हारे तीव्र अंतर्द्वंद का ,
विकल्प ही नहीं......

कब तक असत्य के सहारे ,
इस तिनके की सवारी कर ,
हवा में बहोगे..
आंधियो के सहारे ,
कभी यहाँ , कभी उस जहाँ ,
मान लो उसे जो शाश्वत है ,
सत्य है ....

गुजरना होगा सत्य को भी ,
अग्निपरीक्षा से एक दिन ,
दे देना साक्ष्य तब तुम भी ,
देते क्यों हो अब ,
जब अर्थ नहीं कोई प्रमाण का ,
अनुरोध भी नहीं ....

विकल्प ही नहीं ,
जब कोई  ,
छिटकने का सत्य से दूर,
विकल्प ही नहीं .......
 

 

Saturday, March 8, 2003

अप्राप्य

 क्षनान्श  अपने जीवन का
 क्या अर्पित नहीं कर सकते 
हम अपने अप्राप्य को 

गतांक किसके जीवन का 
उद्वेलित नहीं कर देता 
मन के सुप्त  भाव को 
 
प्रेम  घट जाता  है समीपता से 
मोह बढ़ता है दूर कही बैठे उस 
सुन्दर स्वप्न "अप्राप्य " के प्रति 
 
निर्बल मन व्याकुल कर देता है हठाट ही 
उसे पाने के लिए 
निकटता का विकर्षण 
अकारण ही जोड़ देता है मन 
जीवन के गतांक से 

व्यथित कर हमे 
शतांश ले जाता है 
लोभी मन किसी नवांक हेतु 


पारितोषिक हैं कुछ ओस कण नयनो में 
खड़े हैं हम 
मिथ्या स्मित ओढ़े सनद में 
अर्पित करके 
क्षनान्श  अपने जीवन का
अपने अप्राप्य को



 

Sunday, January 5, 2003

झिलमिलाते सितारे



झिलमिलाते सितारे ,
आकाश की अनंत सीमा के परे
झांकते देखते हमें, 
प्यारे लगते हैं खुले आसमान के तले
अभिमान है अपनी आभा का जिन्हें...

        झिलमिलाते सितारे,
        अमूल्य है उन नेत्रों के भले
        बरबस ही छलक पड़ते हैं
        किसी आत्मीय की स्मृति के साथ
        अविस्मरनीय घटनाओ की याद
        ह्रदय की गहराईओं में छिपे
        झाकते -देखते हमे,
        प्यारे लगते हैं ये भी
        आकाश की अनंत सीमा को तुच्छ करते


झिलमिलाते सितारे,
मन मयूर के सुखद स्वप्नों के साथ
किसी दुर्दांत सत्य से जब हो दो- चार हाथ
किसी अभिन्न की जब चुभती है बात
अपने अनन्य से वार्ता के बाद,
भावनाओ की गहरायियो के तले
प्यारे लगते हैं
मत रोको इन्हें
छलक जाने दो इन्हें ...





झिलमिलाते सितारे ,
आकाश की अनंत सीमा के परे

       
       





Tuesday, September 24, 2002

मेरा ईश्वर




जब कभी ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न उठता है
अगला प्रश्न उठता है " यह प्रश्न कैसे ? "
क्या मुझे विश्वास नहीं
पंछियों के मधुर कलरव पर  ?
आकाश की अनंत सीमा पर ?
तरु-वृन्दों की निश्छलता पर ?
जुगनू की जगमगाहट पर?



क्या मुझे विश्वास नहीं ?
इस असंख्य जनसमूह की एकरूपता पर
इन मानवीय रिश्तों की मधुरता पर ?
स्वयामंगों के निर्दोष संचलन पर ?
विविध जीवो के विचित्र संकरण पर ?





क्या मुझे विश्वास नहीं?
इस तपोवन पर?
मनुष्य के अथक श्रम पर?
मानव मात्र के कर्म पर?
इस निर्विवाद जीवन पर...


फिर ईश्वर के होने पर ,
प्रश्न कैसे ?
इश्वर यही कहीं है,
क्रमिक घटनाओ से मुझे उबारता,
स्वयम ही अपने स्वर को निखारता,
अटल अचल समरूप है वह,
वह हर कही है,
प्रश्नों की सीमा से परे है वह,
वह यही कही है,
वह यही कही है...